Wednesday, March 25, 2009

कहानी - अशोक आन्द्रे

नदी और घड़ा



एक दिन मन्नू अपना घड़ा लेकर नदी की तरफ चल पड़ी । घड़े पर काफी चित्रकारी की हुई थी । इसीलिए घड़ा काफी सुंदर लग रहा था । घडा बार - बार यह देखकर अपने ही पर इतरा रहा था । रास्ते में आने वाले सभी लोगों को देखकर वह अब मुंह चिढ़ाने लगा । इस तरह से उसे बहुत संतुष्टि हुई । वह अपने सर को थोड़ा गर्व से ऊँचा करके इधर - उधर देखने लगा ।

नदी के करीब पहुंचने पर मन्नू जैसे ही उसे नदी में डुबोकर पानी भरने लगी तो इसके साथ एक आवाज उभरने लगी ।यह आवाज काफी मधुर थी । घड़े ने सोचा , अब तक मैंने अपने रूप को ही देखा था , लेकिन अपनी आवाज को नहीं सुना था । हाय , कितना अभागा था ! ऐसी मधुर आवाज संगीत से भरी क्या किसी की हो सकती है ?

यह सब सोचते हुए उसने जैसे ही नदी की तरफ देखा तो उसे लगा की वह भी उसकी आवाज और रूप को देखकर प्रसन्न हो रही है ।

उसने धीरे - से नदी से पूछा , 'मैं कितना सुंदर हूँ ?'

' हाँ , सुंदर तो हो , लेकिन ----'

' लेकिन क्या ?'

' लेकिन यह तुम्हारा रूप , जिस पर इतना इतरा रहे हो , यह नश्वर है ।

तुम्हारे बाद , तुम्हें कोई भी व्यक्ति याद नहीं करेगा । बदसूरत होने पर , तुम्हें लोग घर से बाहर फ़ेंक देंगे । लेकिन में अनश्वर हूँ । मेरा जीवन सौंदर्य- मय है । क्योंकि मैं हमेशा एकs समान बहती हूँ । जिनके जीवन में सिद्धांत नहीं होते , वे मृत्यु को शीघ्र ही प्राप्त हो जाते हैं ।''

यह सब सुन कर एक बार घड़ा थोड़ा - सा ठिठका , लेकिन दूसरे ही छ्ण वह फिर ईर्ष्या से भर उठा और कहने लगा , ' तुम कैसे कह सकती हो कि मेरा कोई सीद्धांत ही नहीं है । मैं हर प्यासे की प्यास बुझाता हूँ । मेरे बगैर लोगों का जीवन दूभर हो जाएगा । वे गर्मी में ठंडे पानी को तरस जाएँगे । इसलिए लोग मेरी प्रशंसा करते हैं , 'और मेरे रूप को संवारते रहते हैं ,जिससे मेरी सुन्दरता को चार चाँद लग जाते हैं । इसलिए में अनश्वर हूँ । तुम मेरे रूप से जलती हो । '

नदी धीरे से मुस्करा दी और चुपचाप बहने लगी ।


जैसे ही मन्नू ने घड़ा भर जाने के बाद उसे उठाया ? ठीक उसी वक्त उसका पैर थोड़ा लडखडा गया
और घड़ा उसके हाथ से छूटकर पानी में गिर गया । वहां पानी के भीतर एक छोटे - से पत्थर से टकराकर घड़ा चूने लगा । उसकी इस दशा को देखकर मन्नू ने घड़े को उठाया और किनारे पर ले जाकर फ़ेंक दिया , जिससे वह चूर - चूर होकर अपने भाग्य को कोसने लगा ।

और नदी वैसे ही कल - कल करती बहती जा रही थी ।

Saturday, March 21, 2009

दोरेन विक्रमादित्य

मनमानी



मुर्गा बोला कुक्डूं -कूं ,
कुत्ता बोला - रोता क्यूँ ,
बिल्ली बोली - म्याऊं - म्याऊं
चुहिया बोली -मै क्यूँ आऊं ,
कौआ बोला - काऊं - काऊं ,
चिड़िया कहे -यह मेरा गांव ,
मुन्ना देख इन्हें मुस्काएं ,
भाला लेकर राजा आए ,
जंगल की तो यही कहानी ,
सब करते अपनी मनमानी ।
दोरेन विक्रमादित्य
हिंदुस्तान (रवि उत्सव )१७-३-०२ में प्रकाशित

Thursday, March 19, 2009

कहानी -अशोक आन्द्रे

गुरु की महिमा


बहुत समय पहले की बात है । उत्तरी सीमा पर एक छोटा -सा राज्य था । उस राज्य में दो भाई रहा करते थे । दोनों भाई बहुत आलसी थे । छोटा भाई बहुत चालाक था । अपने सामने हर किसी को बेवकूफ समझता था ।

उनके पिता काफी बूढ़े हो चले थे । उन्होंने भी कई बार समझाने की कोशिश की , लेकिन उन दोनों के कानोँ पर जूं तक न रेंगती थी ।
एक दिन दोनों भाई गांव से दूर एक झील के किनारे पत्थरों से खेल रहे थे । तभी वहां पर एक बगुला आया और पानी में से मछलिओं को हवा में उछाल कर मुहं में भरने लगा ।

दोनों भाई इस खेल को देख कर काफ़ी आनंद ले रहे थे । तभी छोटे भाई को एक बात सूझी । उसने बडे भाई से कहा - "अगर हम इस खेल को सीख लें तो पूरे देश में नाम हो जायगा । काफी पैसे भी कमा सकते हैं । फिर हमें कोई भी आलसी नहीं कहेगा ।


बड़ा भाई बोला -देखो , इसके लिए काफी साधना करनी पड़ेगी । तब कहीं जाकर इस विद्या को सीख पाएँगे । इसके लिए हमें किसी गुरु की शरण में जाना पड़ेगा ।


गुरु का नाम सुनकर छोटा भाई उसकी हँसी उड़ाने लगा - मैं तो इस खेल का अभ्यास अभी से शुरू कर रहा हूँ । तुम चाहो तो मेरे साथ आ सकते हो ।


बडा भाई चुप रहा । लेकिन छोटे भाई ने उस दिन से अभ्यास करना शुरू कर दिया । बगुले को बड़े ध्यान से देखता ओर इस तरह अभ्यास करते हुए काफी समय बीत गया । अब वह बड़े आराम से लाठी को हवा में उछाल कर मुंह से पकड़ लेता था ।


काफी समय के पश्चात् , छोटे भाई के इस खेल की शोहरत गाँव में फैल गई । फिर गाँव से होती हुई राजा तक इस बात की ख़बर पहुंची ।


एक दिन राजा ने छोटे भाई को दरबार में बुलाया । उसने अपने करतब दिखाकर दरबार के सभी लोगों को आश्चर्यचकित कर दिया । लेकिन राजा उसके खेल को बड़ी खामोशी के साथ देखते रहे ।


अपने करतब दिखाने के बाद छोटे भाई ने राजा को सलाम किया और इनाम पाने के लालच में एक तरफ चुपचाप खड़ा हो गया ।


मगर राजा ने उससे कहा - तुम हमें अगले हफ्ते अपना खेल दुबारा दिखाना , तब हम तुम्हें बहुत सारा इनाम देंगे ।


अगले हफ्ते छोटा भाई फिर राजमहल पहुंचा । वहां उसने जैसे ही अपना करतब दिखाना शुरू किया की राजा ने उसे रोका । कहा , पहले आपने गुरु का नाम बताओ ।


छोटे भाई ने घमंड से सीना तानते हुए कहा , महाराज , हमारा कोई गुरु नहीं है । मैंने स्वयं ही इस विद्या को सीखा है ।


राजा को बडा आश्चर्य हुआ । उन्होंने छोटे भाई को एक बल्लम दिया और कहा - अगर तुम इसे उछाल कर मुंह से पकड़ कर दिखा दो तो हम तुम्हें आधा राज्य इनाम में देंगे ।


छोटे भाई ने गर्व से सभी लोगों को देखा और सीना फुलाकर बल्लम को हवा में उछाल दिया ।


जैसे ही बल्लम को मुंह से पकड़ना चाहा , वह लडखडा गया और बल्लम उसके शरीर को चीरता चला गया ।


इस दृश्य को देख कर दरबार में भय मिश्रित सन्नाटा छा गया ।


राजा ने दरबार को संबोधित करते हुए कहा - मैंने इस बात की खोज पहले से ही करवा ली थी । आख़िर कहाँ से इन्होंने इस विद्या को सीखा है । जो लोग गुरु का अपमान इस तरह उनका नाम छिपा कर करते हैं , उनका यही हाल होता है ।

Tuesday, March 10, 2009

अशोक आन्द्रे




आस लिए फिर चलती है


नदी किनारे बैठी बुढ़िया
सोच रही है मन में ।
शीत लहर बर्फीला पानी
आग नहीं है तन में ।

सूरज का बचपन कोहरे को
लाँघ नहीं पाया है ।
हिम शिखरों के पीछे से
मौसम भी शरमाया है ।

श्वेत चादरों के नीचे
तेज हवाएं फेंके बाण ।
सूने व खाली मन में
चारों और उठे तूफान ।

ऐसे में जीने की इच्छा
पर फैलाए उठती है ।
बहती नदिया की धारा संग
आस लिए फिर चलती है ।



शांत नदी - सा गाता वक्त


रोज़ सवेरे आता वक्त

साँझ ढले फिर जाता वक्त ।

कठपुतली सा नाच नचाकर

चिड़ियों - सा फुदकाता वक्त ।

आँख मूंद सोने वालों को

बंदर नाच नचाता वक्त ।

कठोर उद्यमी के जीवन में

शांत नदी - सा गाता वक्त ।

कर्म ही जीवन का ध्येय

ऐसा गीत सुनाता वक्त ।