Monday, November 11, 2013

अशोक आंद्रे



विकास में जड़ता
साप्ताहिक हिन्दुस्तान २० नवंबर १९८३ के अंक में बाल-कविताएँ : सीमाएं और संभावनाएं के अंतर्गत मेरे विचारों को सम्मलित किया गया था जिसे आज में आप लोगों के साथ शेयर करना चाहता हूँ

आज ही क्यों ? बल्कि यों कहिये कि बाल साहित्य में जबसे सृजनात्मक स्तर पर विविध प्रकार से लेखन शैली का विकास हुआ है , तभी से उसके शिल्प और विषय की दृष्टि से प्रयोगात्मक स्तर पर कार्य किया गया है. लेकिन बाल-साहित्य में रचना प्रक्रिया के दौरान यह देखना जरूरी कि हम किस वर्ग के बच्चों के लिए लिख रहे हैं. मैं इस तरह से बच्चों को दो वर्गों में विभाजित करता हूँ.प्रथम तीन से नौ वर्ष की आयु के बच्चों तथा द्वितीय में दस से अठारह वर्ष की आयु तक.
प्रथम वर्ग की आयु की कविताओं में,भाषा की सहजता के साथ-साथ मनोरंजक तत्वों की प्रधानता का होना अनिवार्य है. क्योंकि इस वर्ग के बच्चों का स्वभाव सहजता व मनोरंजक तत्वों की ओर ही आकृष्ट होना रहा है.जटिल विषयों की ओर वह आकर्षित होता है क्योंकि सहजता उनकी प्रवृति होती है.इस तरह से स्पष्ट है कि बाल साहित्य में जो भी प्रयोग की दृष्टि से संभव हुआ है, वह द्वितीय वर्ग आयु के लिए ही सफल रहा है.
पिछले कुछ समय से हमारा समाज इतना व्यक्तिवादी हो गया है कि हर व्यक्ति इस प्रवृति के कारण संकीर्ण हो गया है. इसीलिए पारिवारिक स्तर पर अलगाव की प्रवृति बढ़ रही है. बच्चे इन असंगतियों के चलते क्या महसूस करते हैं ? यह सब सोचने को उनके पास समय नहीं रह गया है. उनकी मस्त चंचलता सिर्फ जड़ता का बोध कर रह जाती है . उनके चेहरों पर तनावों का जाल बढ़ता जा रहा है.
यह चूहे-बिल्लियों व परी-कथाओं पर आधारित कविताएँ कविताएँ आज उसे चैन से नहीं बैठने देती है, वह सवाल-दर-सवाल खड़े कर देता है. क्योंकि आज के बदलते परिवेश में उसकी अपनी सोच व मान्यताएं बलवती होती जा रही हैं. इनके रहते बाल-साहित्य में शिल्प और विषय की दृष्टि से नवगीत इनकी मानसिकता के अनुरूप ही बैठती है.
जहां तक बाल-साहित्य में सीमाओं का सवाल है, यह सोचना बेमानी न होगा कि इस तरह से उस विधा को जकड़ कर बाँध देते हैं जो कि उसके लिए आयु में काफी छोटे होते हैं. जिनका भाषा ज्ञान भी अधिक नहीं है. जिनका मानसिक विकास और ग्राह्य शक्ति भी वयस्कों की तुलना में बहुत कम है. वैसे भी नन्हें-मुन्नों को तुकांत कविताएँ ही पसंद होती हैं जिन्हें वे प्राय: गुनगुनाते रहते हैं. विकास की प्रक्रिया में एकरसता जड़ता को स्थापित करती है.
परिवर्तन के दृष्टिकोण से बाल-साहित्य के भविष्य के बारे में सोचना इतना सहज नहीं, जितना हम मान बैठते हैं. किसी भी देश का साहित्य उस समय की स्थितियों के अंतर्गत ही रचा जाता है. जैसे-जैसे हमारा सामाजिक परिवेश करवटें बदलता है, ठीक उसी क्रम में सभी विधाएं अपना ताना-बाना बुनती हैं.
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Tuesday, April 2, 2013

अशोक आंद्रे

                                                        पराजय
कई वर्ष पूर्व की बात है। मध्य प्रदेश की पूर्वी सीमा पर प्रजापति नाम के राजा राज्य करते थे।उनके राज्य की
 
पश्चिमी सीमा से एक बीहड़ जंगल था। जिसमें मानवेन्द्र
सिंह नाम का खूंखार डाकू का आतंक पूरे प्रदेश पर छाया हुआ था। उसका हर शब्द बन्दूक की नोक पर टिका
 
हुआ था। दया नाम की चीज उससे कोसों दूर थी। उसके
आतंक के कारण राज्य का हर व्यक्ति पेड़ के पत्ते - सा कांपता रहता था। लोगों को कांपता देख उसे काफी
 
शान्ति मिलती थी। राजा प्रजापति भी कुछ कर कुछ कर पाने में अपने को असमर्थ पाते थे।
लेकिन पिछले कई समय से डाकू मानवेन्द्र सिंह के मन में अशांति के भाव कोलाहल कर रहे थे।
जिन्दगी की भागमभाग के कारण वह इस तरफ कभी सोच नहीं पाता था। इसी भटकन में वह एक के बाद एक
 
खून करता चला गया।
एक दिन वह पास के किसी शहर में बहुत बड़ी डकैती कर के लौट रहा था। उसके सभी साथी खुश नजर आ रहे
 
थे। उस दिन जितना लूट का माल इससे पहले कभी
प्राप्त नहीं हुआ था। सभी थके मांदे हुए थे। कुछ देर सुस्ताने के इरादे से उन्होंने एक गाँव में शरण ली। वहां के
 
मुखिया ने डर के मारे उन्हें सारी सुविधाएँ प्रदान की।
डाकू मानवेन्द्र सिंह चारपाई पर लेटते ही खर्राटे लेने लगा। उसके अन्य साथी भी इधर-उधर फैल कर सुस्ताने
 
लगे। तभी कहीं से दो साल का बच्चा खेलता-कूदता
उधर आ निकला। डाकू की बड़ी-बड़ी मूंछें हर सांस के साथ नाक के नीचे लहरा रहीं थीं।
काफी देर तक वह बच्चा पास में पड़ी उसकी बन्दूक से खेलता रहा।
अचानक ही बच्चा चारपाई के पास आ कर डाकू मानवेन्द्र सिंह की मूछों से छेड़-छेड़ करने लगा तथा उसकी मूछें
 
अपने नन्हें हाथों से पकड़ कर जोर से खींच दीं।
इस अप्रत्याशित हमले से डाकू मानवेन्द्र सिंह हडबडा कर उठ बैठा। और दहाड़ता हुआ बोला," कौन है बे।"
उसकी धाड़ सुन कर उसके साथीयों के साथ-साथ गाँव के सभी लोग कांपते हुए उसके इर्द-गिर्द छिप कर देखने
 
लगे। दृश्य को देख कर सभी लोग दहल गए। क्योंकि
आज तक बड़े-बूढों के साथ बच्चे भी डाकू मानवेन्द्र सिंह के वहशीपन से बच नहीं पाए थे। उधर वह बच्चा जोर-
 
जोर से खिलखिलाकर ताली बजा रहा था। डाकू
मानवेन्द्र सिंह का गुस्सा बच्चे की निश्छल हंसी देख मुस्कराहट में बदल गया। उसे लगा,आज उसकी पराजय
 
हो गयी है।लेकिन उस पराजय में भी एक अदभुत
आनंद का सागर उमड़ रहा था। लगा सच्चा सुख तो इस भोली खिलखिलाहट में है। और वह तो व्यर्थ ही लोगों
 
को मौत के घाट उतार कर ही आनंदित होता रहा है।
अब उसका मन वितृष्णा के सागर में डूबने उतराने लगा। बच्चे को गोद में उठा कर वह नाचने लगा।
उस दिन से डाकू मानवेन्द्र सिंह ने अपने अतीत के नारकीय जीवन से तौबा कर ली। और कसम ली कि वह
 
भविष्य में एक अच्छे नागरिक की तरह अपनी जिन्दगी
बिताएगा।
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