विकास में जड़ता
साप्ताहिक हिन्दुस्तान २० नवंबर १९८३ के अंक में बाल-कविताएँ : सीमाएं
और संभावनाएं के अंतर्गत मेरे विचारों को सम्मलित किया गया था जिसे आज में आप
लोगों के साथ शेयर करना चाहता हूँ
आज ही क्यों ? बल्कि यों कहिये कि बाल साहित्य में जबसे सृजनात्मक
स्तर पर विविध प्रकार से लेखन शैली का विकास हुआ है , तभी से उसके शिल्प और विषय
की दृष्टि से प्रयोगात्मक स्तर पर कार्य किया गया है. लेकिन बाल-साहित्य में रचना
प्रक्रिया के दौरान यह देखना जरूरी कि हम किस वर्ग के बच्चों के लिए लिख रहे हैं.
मैं इस तरह से बच्चों को दो वर्गों में विभाजित करता हूँ.प्रथम तीन से नौ वर्ष की
आयु के बच्चों तथा द्वितीय में दस से अठारह वर्ष की आयु तक.
प्रथम वर्ग की आयु की कविताओं में,भाषा की सहजता के साथ-साथ मनोरंजक
तत्वों की प्रधानता का होना अनिवार्य है. क्योंकि इस वर्ग के बच्चों का स्वभाव
सहजता व मनोरंजक तत्वों की ओर ही आकृष्ट होना रहा है.जटिल विषयों की ओर वह आकर्षित
होता है क्योंकि सहजता उनकी प्रवृति होती है.इस तरह से स्पष्ट है कि बाल साहित्य
में जो भी प्रयोग की दृष्टि से संभव हुआ है, वह द्वितीय वर्ग आयु के लिए ही सफल
रहा है.
पिछले कुछ समय से हमारा समाज इतना व्यक्तिवादी हो गया है कि हर
व्यक्ति इस प्रवृति के कारण संकीर्ण हो गया है. इसीलिए पारिवारिक स्तर पर अलगाव की
प्रवृति बढ़ रही है. बच्चे इन असंगतियों के चलते क्या महसूस करते हैं ? यह सब सोचने
को उनके पास समय नहीं रह गया है. उनकी मस्त चंचलता सिर्फ जड़ता का बोध कर रह जाती
है . उनके चेहरों पर तनावों का जाल बढ़ता जा रहा है.
यह चूहे-बिल्लियों व परी-कथाओं पर आधारित कविताएँ कविताएँ आज उसे चैन
से नहीं बैठने देती है, वह सवाल-दर-सवाल खड़े कर देता है. क्योंकि आज के बदलते
परिवेश में उसकी अपनी सोच व मान्यताएं बलवती होती जा रही हैं. इनके रहते
बाल-साहित्य में शिल्प और विषय की दृष्टि से नवगीत इनकी मानसिकता के अनुरूप ही
बैठती है.
जहां तक बाल-साहित्य में सीमाओं का सवाल है, यह सोचना बेमानी न होगा कि
इस तरह से उस विधा को जकड़ कर बाँध देते हैं जो कि उसके लिए आयु में काफी छोटे होते
हैं. जिनका भाषा ज्ञान भी अधिक नहीं है. जिनका मानसिक विकास और ग्राह्य शक्ति भी
वयस्कों की तुलना में बहुत कम है. वैसे भी नन्हें-मुन्नों को तुकांत कविताएँ ही
पसंद होती हैं जिन्हें वे प्राय: गुनगुनाते रहते हैं. विकास की प्रक्रिया में एकरसता
जड़ता को स्थापित करती है.
परिवर्तन के दृष्टिकोण से बाल-साहित्य के भविष्य के बारे में सोचना
इतना सहज नहीं, जितना हम मान बैठते हैं. किसी भी देश का साहित्य उस समय की
स्थितियों के अंतर्गत ही रचा जाता है. जैसे-जैसे हमारा सामाजिक परिवेश करवटें
बदलता है, ठीक उसी क्रम में सभी विधाएं अपना ताना-बाना बुनती हैं.
******
12 comments:
आलेख में व्यक्त विचारों से सहमत हूँ।
सटीक विश्लेषण!
आदरणीय अशोक जी,
नमस्कार l
मैंने अभी आपके ब्लॉग पर रचनाओं को पढ़ा l
कहानी 'पराजय' और कवितायेँ बहुत अच्छी लगीं l
बहुत बधाई l
सराहना स्वीकार करें l
सादर,
कुसुम वीर
आपके हर शब्द उस कुम्हार जैसे हैं,जो मिटटी को सही सांचे में ढालने के लिए उसे रुंधता है,शक्ल देता है ....
बाल मनोविज्ञान के अनुसार एक से पांच वर्ष के बच्चों में सीखने की शक्ति, व्यस्कों से पांच गुना प्रखर होती है. इस आयु तक उसके डर, ताकत, कमजोरी, लाइक-डिस्लाइक्स आदि सायक्लोजिकल ट्रेट्स नव्वे प्रतिशत आकार ले लेते हैं. इस दृष्टी से बाल साहित्यकारों का उत्तरदायित्व और भी बढ़ जाता है। आपसे सम्पूर्णत: सहमत कि बाल साहित्य में असीम सम्भावनाओं कि स्पष्ट आहट है जिसे इस परिवर्तनशील समय में सीमाओं में जकड़ना अन्याय होगा। प्रयोग हों लेकिन दुष्प्रयोग नहीं। आपने इस आलेख में बाल मनोविज्ञान के कई अयामों को बाखूबी विश्लेषित किया है, जो एक शोध लेख की तरह कालजयी बन पड़ा है। इस संदर्भ में उद्धृत बाल कथा " पराजय " और बाल गीत " चिड़िया रानी " हर आयु के बच्चों पर अमिट प्रभाव छोड़ने में सक्षम हैं।
शुभकामनाएं
-सविता इन्द्र
AAPKEE SASHAKT LEKHNI KE AAGE MAIN
NATMASTAK HUN . SAHITYA KEE HAR VIDHA MEIN LIKHNE KE AAP MAAHIR HAIN . SABHEE RACHNAAYEN UTKRISHT
HAIN .
किसी भी देश का साहित्य उस समय की स्थितियों के अंतर्गत ही रचा जाता है. जैसे-जैसे हमारा सामाजिक परिवेश करवटें बदलता है, ठीक उसी क्रम में सभी विधाएं अपना ताना-बाना बुनती हैं.
******
आपकी इस बात से मैं पूर्णता सहमत हूँ ....पर आज के वक्त के साहित्यकार....हम जैसे लेखकों की कवितायों और लेखो को पढ़ना भी पसंद नहीं करते ....उसन सबके मुताबिक आज का युवा ....या आज का लिखने वाला वो सब नहीं लिखता जिसे कविता या लेख कहा जा सके
30 वर्ष पूर्व आपने अपने लेख में बालसाहित्य से संबन्धित जो विचार प्रकट किए वे आज भी उतनी ही यथार्थता व व्यवहारिकता सँजोये हुए हैं ।
आपने ठीक ही कहा-बदलता परिवेश ही बाल साहित्य के भविष्य को निर्धारित करेगा । उसको कुछ नियमों की जंजीर में जकड़ना साहित्य के मार्ग को अवरुद्ध करना है ।
pranam !
behad prabhaav shaali aalekh hai ,
saadar
३० साल पहले का आपका विचार आज के सन्दर्भ में भी उपयुक्त. बहुत अच्छा आलेख, बधाई.
आदरणीय अशोक जी,
अस्वस्थ थी, उत्तर देने में विलम्ब हुआ, क्षमा चाहती हूं।
आपके बाल साहित्य को लेकर विचार, कहानी और कविताएं पढ़ीं। यह सरल , सहज, अबोधता का हमारा समय था। तब सब सुन्दर था। अब तो मैं जब भी भारत आती हूं तो इस कम्पयूटर के युग में, अंग्रेज़ी प्रभावित बच्चों में वह मासूमियत मुझे तो ढूंढे भी नहीं दिखती और न ही मां -बाप को इससे कोई सरोकार दिखता है। गौरेया की तरह लगता है बाल कविताएं भी विलुप्त जाति की हो गई हैं।
शायद मैं ज़्यादा ही निराशा जनक बात कर रही हूं पर मुझे तो हिन्दी की कहानियां सुनने वाले और वह भोली- भाली कविताएं सुनाने वाले बच्चे दिखते नहीं।
सादर
अनिल प्रभा कुमार
बहुत ही सुंदर उपयोगी रचना।
Post a Comment