Tuesday, April 2, 2013

अशोक आंद्रे

                                                        पराजय
कई वर्ष पूर्व की बात है। मध्य प्रदेश की पूर्वी सीमा पर प्रजापति नाम के राजा राज्य करते थे।उनके राज्य की
 
पश्चिमी सीमा से एक बीहड़ जंगल था। जिसमें मानवेन्द्र
सिंह नाम का खूंखार डाकू का आतंक पूरे प्रदेश पर छाया हुआ था। उसका हर शब्द बन्दूक की नोक पर टिका
 
हुआ था। दया नाम की चीज उससे कोसों दूर थी। उसके
आतंक के कारण राज्य का हर व्यक्ति पेड़ के पत्ते - सा कांपता रहता था। लोगों को कांपता देख उसे काफी
 
शान्ति मिलती थी। राजा प्रजापति भी कुछ कर कुछ कर पाने में अपने को असमर्थ पाते थे।
लेकिन पिछले कई समय से डाकू मानवेन्द्र सिंह के मन में अशांति के भाव कोलाहल कर रहे थे।
जिन्दगी की भागमभाग के कारण वह इस तरफ कभी सोच नहीं पाता था। इसी भटकन में वह एक के बाद एक
 
खून करता चला गया।
एक दिन वह पास के किसी शहर में बहुत बड़ी डकैती कर के लौट रहा था। उसके सभी साथी खुश नजर आ रहे
 
थे। उस दिन जितना लूट का माल इससे पहले कभी
प्राप्त नहीं हुआ था। सभी थके मांदे हुए थे। कुछ देर सुस्ताने के इरादे से उन्होंने एक गाँव में शरण ली। वहां के
 
मुखिया ने डर के मारे उन्हें सारी सुविधाएँ प्रदान की।
डाकू मानवेन्द्र सिंह चारपाई पर लेटते ही खर्राटे लेने लगा। उसके अन्य साथी भी इधर-उधर फैल कर सुस्ताने
 
लगे। तभी कहीं से दो साल का बच्चा खेलता-कूदता
उधर आ निकला। डाकू की बड़ी-बड़ी मूंछें हर सांस के साथ नाक के नीचे लहरा रहीं थीं।
काफी देर तक वह बच्चा पास में पड़ी उसकी बन्दूक से खेलता रहा।
अचानक ही बच्चा चारपाई के पास आ कर डाकू मानवेन्द्र सिंह की मूछों से छेड़-छेड़ करने लगा तथा उसकी मूछें
 
अपने नन्हें हाथों से पकड़ कर जोर से खींच दीं।
इस अप्रत्याशित हमले से डाकू मानवेन्द्र सिंह हडबडा कर उठ बैठा। और दहाड़ता हुआ बोला," कौन है बे।"
उसकी धाड़ सुन कर उसके साथीयों के साथ-साथ गाँव के सभी लोग कांपते हुए उसके इर्द-गिर्द छिप कर देखने
 
लगे। दृश्य को देख कर सभी लोग दहल गए। क्योंकि
आज तक बड़े-बूढों के साथ बच्चे भी डाकू मानवेन्द्र सिंह के वहशीपन से बच नहीं पाए थे। उधर वह बच्चा जोर-
 
जोर से खिलखिलाकर ताली बजा रहा था। डाकू
मानवेन्द्र सिंह का गुस्सा बच्चे की निश्छल हंसी देख मुस्कराहट में बदल गया। उसे लगा,आज उसकी पराजय
 
हो गयी है।लेकिन उस पराजय में भी एक अदभुत
आनंद का सागर उमड़ रहा था। लगा सच्चा सुख तो इस भोली खिलखिलाहट में है। और वह तो व्यर्थ ही लोगों
 
को मौत के घाट उतार कर ही आनंदित होता रहा है।
अब उसका मन वितृष्णा के सागर में डूबने उतराने लगा। बच्चे को गोद में उठा कर वह नाचने लगा।
उस दिन से डाकू मानवेन्द्र सिंह ने अपने अतीत के नारकीय जीवन से तौबा कर ली। और कसम ली कि वह
 
भविष्य में एक अच्छे नागरिक की तरह अपनी जिन्दगी
बिताएगा।
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9 comments:

PRAN SHARMA said...

DIL MEIN UTAR GAYEE HAI AAPKEE KAHANI . JAESAA AANAND DAAKOO KO
PRAAPT HUAA VAESAA AANAND MUJHKO
BHEE PRAAPT HUAA HAI . BAHUT KHOOB !

सुनील गज्जाणी said...

pranam !
kehtee hai naa ki jaha saativik baav ho waha taamsi bhaav prakat nahi hote . aur ghar me bachcha hoto sou ka maoranjan kar detaa hai , achchi katha . sadhuwad
saadar

रश्मि प्रभा... said...

ज़िन्दगी कब रास्तों को जोड़ देगी,कौन जानता है ....

रूपसिंह चन्देल said...

बड़े भाई, लंबे समय बाद तुम्हारी बाल कहानी पढ़ी. अच्छा लगा. निरन्तरता बनी रहेगी आशा है.

बधाई,

रूपसिंह चन्देल

Anonymous said...

आदरणीय अशोक जी ,
धन्यवाद । मैंने कहानी पढ़ी । आपकी बाल कथाओ को पढ़ना अच्छा लगता है ।
सादर
इला

Anonymous said...




इस बाल कहानी में एक बहुत बड़ा सत्य उजागर किया गया है कि बच्चों की निर्मल व उन्मुक्त हँसी में ही दिव्यता के दर्शन होते हैं जिसके प्रभाव से कोई बच नहीं पाता और उनकी संगति में ही स्वर्ग जैसा आनंद मिलता है । कहानी अंत में नया मोड़ लेती है जो मनोरंजक व दिल को लुभाने वाली है । शब्दों का वाक्य विन्यास सुन्दर बन पड़ा है जिससे नयेपन की अनुभूति होती है । अन्य कहानी का इन्तजार है ।
Sudha Bhargava

Anonymous said...

दुर्दांत दस्यु हो या घोर बुराई से भरा इंसान हो ......ह्रदय की अतल
गहराइयों में अच्छाई अवश्य सोई पड़ी होती है ..... मानव मन के इस शाश्वत
सत्य से परिचय कराती कथा ....अगली रचना का अधीरता से प्रतीक्षा ... !
शुभकामनाएं .
- इंद्र सविता

Udan Tashtari said...

अति उत्तम रचना

सुधाकल्प said...

बच्चों की भोलीमुस्कान और मासूमियत पर तो अच्छे-अच्छे फ़िदा हो जाते हैं फिर डाकू ही बालक के जादू से कैसे बचता। कहानीबहुत ही अच्छी है।